अनुभूति में
खुर्शीद खैराड़ी
की रचनाएँ-
अंजुमन में-
अपना गाँव
खेतों के दरके सीने पर
गम की गठरी को जीवन भर
दिल्ली के दावेदारों
बरसाती रातों का गम
भोर हुई
हमारी भूख को
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दिल्ली के दावेदारों
दिल्ली के
दावेदारों तुम, देहातों में जाकर देखो
तकलीफ़ों की लहरें देखो, गम का गहरा सागर देखो
सूरज अंधा चंदा अंधा, दीप बुझे हैं आशाओं के
रातें काली हैं सदियों से, और दुपहरें धूसर देखो
निर्धन की झोली में है दुख, मौज दलालों के हिस्से में
कुटिया देखो दुखिया की तुम, वैभव मुखिया के घर देखो
मोती निपजाने वाले तन, धोती को तरसे बेचारे
गोदामों में सड़ता गेंहूँ, भूखे बेबस हलधर देखो
आँसू गाँवों के भरते हो, सुविधाओं के पैमानों में
ठेठ अभावों की खाई से, विपदाओं का डूँगर देखो
मुफ़्त दवायें मुफ़्त पढाई, शर्मसार सब जुमले होंगें
खटिया पर इक रोगी बुढ़िया, मैले नंगे टाबर देखो
जश्न मनाओ आज़ादी का, लूट मचाओ देहातों में
ढोल नरेगा का पीटो मत, पेट फुलाये अफ़सर देखो
सात पुश्त तक का तुमने कर, इंतजाम भर लिया खज़ाना
सात दशक की आज़ादी की, हालत कितनी जर्जर देखो
अँधियारे को झुठलाते हो, फ़िल्म चढ़ाकर तुम चमकीली
रंग उड़ा झूठे दावों का, काली धुँधली पिक्चर देखो
आजीवन आँसू पीकर भी, प्यासी है सुख की चिंगारी
सागर सागर भटका फिर भी, रीती मन की गागर देखो
आखिर ये दिन भी थे आने, अब ‘खुरशीद’ ग़ज़ल कहता है
कलयुग में घर घर नेता, गली गली में शायर देखो
२२ दिसंबर २०१४
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