अनुभूति में
खुर्शीद खैराड़ी
की रचनाएँ-
अंजुमन में-
अपना गाँव
खेतों के दरके सीने पर
गम की गठरी को जीवन भर
दिल्ली के दावेदारों
बरसाती रातों का गम
भोर हुई
हमारी भूख को
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अपना गाँव
याद बहुत आता है
अपना गाँव मुझे
लौटा दे शायद फिर विधना गाँव मुझे
गम की कड़वी रातों में घोले मिसरी
लगता है इक मीठा सपना गाँव मुझे
चेतन है माटी में यादों की इक जड़
भूल न जाता अब तक वरना गाँव मुझे
सुख की खातिर जिसको रेहन रख आया
लगता है वो गिरवी गहना गाँव मुझे
झूठ कपट के युग में सीधा सादा हूँ
सिखलाता है सच पर चलना गाँव मुझे
कैद सुखों की मुझको करदे निर्मोही
यादों में लेकिन तू रखना गाँव मुझे
पेट नगर में लाया दिल देहाती को
रोक रहा था उस दिन कितना गाँव मुझे
सात समुंदर नपते सात पहर में अब
दूर लगे क्यों फिर भी इतना गाँव मुझे
बाबा की सीरत सा माँ की ममता सा
लगता है भोली सी बहना गाँव मुझे
रहा विमुख तेरी सेवा से निज खातिर
साफ़ कहूँ मैं माफ़ न करना गाँव मुझे
बेगानेपन की रज झड़ जाये सारी
कसकर यों बाँहों में भरना गाँव मुझे
स्वर्ग यही धरती का, लगता है यारों
-कुदरत की सुंदरतम रचना गाँव मुझे
होली दीवाली पर शादी सगपन पर
कह ‘खुरशीद’ बुलाते रहना गाँव मुझे
२२ दिसंबर २०१४
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