आजकल
क्यों परेशाँ आदमी है आजकल।
शामे ग़म की ज़िंदगी है आजकल।
खून के प्यासे हैं सारे लोग ही,
जिससे देखो दुश्मनी है आजकल।
बदनसीबी के शिकार होते गए,
जिसके घर में मुफलिसी है आजकल।
सर्द मौसम में भी कपड़े हैं
नहीं,
क्या करूँ के भुखमरी है आजकल।
पूछती है ये बहारां जिंदगी,
क्यों ख़िज़ाँ में दिलकशी है आजकल।
आप मुझ पर ही सितम करते है
क्यों,
मुझसे ही क्यों दुश्मनी है आजकल।
हम ग़रीबों का मकाँ कैसे बने,
हममें ही सारी कमी है आजकल।
लब पे ज़रदारों के ही प्यारे
हसन,
बस गुलों की ताज़गी है आजकल।
२ फरवरी २००९ |