अनुभूति में हरि
अन्जान की रचनाएँ-
अंजुमन में-
अगर चलने का
आया किये थे तेरे शहर
ज़ख़्मों को हवा
धूप
फ़ासिले
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धूप
धूप फिर ये छत छत उतरी है,
इक हवा भी उदास गुज़री है।
छाँव से किस तरह कहा जाये,
धूप क्यूँ दरख़्त पर ठहरी है।
ख़्वाब आते मगर कहाँ आते,
रात जो नज़र नज़र गुज़री है।
हो गये हैं बड़े कहीं बच्चे,
चीज़ घर की हरेक बिखरी है।
हो गया संग आज दिल अपना,
चोट पर चोट बहुत गहरी है।
८ अगस्त २०११ |