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अनुभूति में द्विजेन्द्र द्विज की रचनाएँ -

औज़ार बाँट कर
कहाँ पहुँचे
कोई बरसता रहा
ज़रा झाँक कर
दिलों की उलझनों से
बंद कमरों के लिए
मिली है ज़ेह्न-ओ-दिल को बेकली
मोम-परों से उड़ना
सामने काली अंधेरी रात
वो नज़र में

 

सामने काली अंधेरी रात

सामने काली अंधेरी रात ग़ुर्राती रही
रौशनी फिर भी हमारे संग बतियाती रही

स्वार्थों की धौंकनी वो आग सुलगाती रही
गाँव की सुंदर ज़मीं पर क़हर बरपाती रही

सत्य और ईमान के सब तर्क थे हारे— थके
भूख मनमानी से अपनी बात मनवाती रही

बेसहारा झुग्गियों के सारे दीपक छीन कर
चंद फ़र्मानों की बस्ती झूमती — गाती रही

खुरदरे हाथों से लेकर पाँवों के छालों तलक
रोटियों की कामना क्या—क्या न दिखलाती रही

रास्ता पहला क़दम उठते ही तय होने लगा
रास्तों की भीड़ बेशक उसको उलझाती रही

३० जून २००८

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