कोई बरसता रहा
कोई बरसता रहा बादलों की भाषा में
कोई तरसता रहा मरुथलों की भाषा में
ज़ुबान होश की उसको समझ नहीं आती
बहक रही है सदी, मनचलों की भाषा में
तमाम खेत निवाले बने हैं शहरों के
यहाँ किसान कहे क्या हलों की भाषा में
सुकूँ ज़रूर है अब हम यहाँ ग़ुलाम नहीं
बँधे हुए हैं मगर साँकलों की भाषा में
सवाल हमने किए हैं बड़े ही संजीदा
न टालिएगा इन्हें चुटकलों की भाषा में
ग़ज़ल हमारी हो कैसे ज़ुबान पर उनकी
जो चाहते हैं ग़ज़ल पायलों की भाषा में
३० जून २००८
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