दिलों की उलझनों से
दिलों की उलझनों से फ़ैसलों तक
सफ़र कितना कड़ा है मंज़िलों तक
यही पहुँचाएगा भी मंज़िलों तक
सफ़र पहुँचा हमारा हौसलों तक
ये अमनो—चैन की डफली ही उनकी
हमें लाती रही कोलाहलों तक
दरख़्तों ने ही पी ली धूप सारी
नहीं आई ज़मीं पर कोंपलों तक
हम उनकी फ़िक्र में शामिल नहीं हैं
वो हैं महदूद ज़ाती मसअलों तक
ज़माने के चलन में शाइरी भी
सिमट कर रह गई अब चुटकलों तक
यहाँ जब और भी ख़तरे बहुत थे
'द्विज'! आता कौन फिर इन साहिलों तक
३० जून २००८
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