दुश्मन नहीं कोई
दुश्मन नहीं कोई मेरा इस जहान में!
अपनों से ख़ौफ़ है मुझे अपने मकान में!
फूलों ने, पत्थरों ने, ख़िज़ाँ ने,
बहार ने,
तोहफ़े मैं दी हैं गालियाँ अपनी ज़बान में!
बेचूँ मैं किस तरह, कि ख़रीदार ही
नही,
काँटे हैं बस बचे हुए मेरी दुकान में!
चलता रहा हमेशा मैं एक काफिले के
संग,
अब कोई हमसफ़र नही, इस इम्तिहान में!
अख़लाक कर बुलंद कुछ इस तर्ज़ से 'ऐ
दिल'
तुझ-सा हो फिर न कोई भी सारे जहान में!
२६ जनवरी २००९ |