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दरख़्तों पे नज़र
पंछियों के शोर

प्यार करके जताना
मुझे घर से निकलना
शहर का चेहरा
यह जो हँसता गुलाब है
हम छालों को कहाँ गिनते हैं

हवा तो हल्की आने दो

 

भाप बनकर

भाप बनकर उड़ी जा रही
यूँ नदी अपने घर आ रही

सज गई धानी रंग में धरा
किसके स्वागत में मुस्का रही

दिल ये बंजर हुआ जा रहा
आँख से भी नमी जा रही

बंद हैं घर की सब खिड़कियाँ
पर कहाँ से हवा आ रही

धूप ने ज़ख़्म तो दे दिए
अब हवा उनको सहला रही

२७ जुलाई २०१५
 

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