मुझको यहाँ
मुझको यहाँ तो हर कोई अपना लगा
सपना हकीकत और सच सपना लगा
मैंने बढ़ाया गुल की जानिब हाथ
जब
काँटा जो उसके साथ था, वो आ लगा
बैठा है शीशे के मकां में आदमी
हर दम ही पत्थर का अंदेशा लगा
अख़त्यार है किसको यहाँ दिल पर
भला
जो भी लगा अच्छा, उसी से जा लगा
अब रो रहा है रख जिगर पर हाथ
क्यों
'आतिश' न दिल, कितना ही समझाया, लगा
९ जुलाई २००६ |