अनुभूति में
अनिता मांडा की रचनाएँ-
छंदमुक्त में-
आजकल
एक इबादल
कितना सुकूँ
सभ्यताएँ
सितारे रिश्ते इंसान
अंजुमन में-
किश्ती निकाल दी
गला के हाड़ अपने
पंख की मौज
लबों पर आ गया
शाम जैसे
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आजकल
तुम्हें भी ऐसा ही लगता है क्या?
ये सफेद बादल
ऐसे ही लगते हैं न
जैसे तुमने पहला ख़त लिखने के लिये
डायरी के पेज कुछ फाड़े थे
और पहली लाइन लिखकर
काट दी
और मुठ्ठी में मसलकर फैला दिए थे
पूरे फ़र्श पर...
केन्टीन में टेबल पर बना हुआ दिल
कोई तीर निकला हुआ था उसमें से
चुपके से बनाया था तुमने
फिर भी नजर मिलते ही
राज़ जाहिर था।
अब भी होगा शायद वहीं
वो अशोक का पेड़
जिसके तने पर खुरच दिए थे हमने
नाम के पहले अक्षर।
अब भी सम्भाल रखा है क्या
वो टिश्यू पेपर
जो तुमने मुझसे नजर बचाकर
उठा लिया था पहली कॉफी डेट पर
नोट्स के बहाने पढ़वाना
साहिर की ग़ज़लें
फ़ैज के शेर का
फ़िराक़ के शेर से जवाब
सितारों ने अपनी जगह नहीं छोड़ी न!
अब भी वहीं पर हैं, जहाँ हम
देखते थे हॉस्टल की खिड़की से...
पर आजकल कुछ ज़र्द सा दिखता है चाँद
या शायद...
कहाँ थे ये सब
मन के किसी कोने में
क्यों ले आई ये पहली बारिश की ख़ुश्बू
साथ अपने यादों के काफ़िले
कि ये तन्हा नहीं छोड़ते मुझको
इस भीड़ में किसे पुकारूँ मैं
कुछ भी तो नहीं कहती जुबाँ
ख़ामोश सी आँखें
तुम्हें भी ऐसा ही लगता है क्या
आजकल
१ अक्तूबर २०१६ |