अनुभूति में अमित
खरे की
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विषकन्या
ये बहुत धीरे धीरे होता है
थोड़ी थोड़ी मात्रा में रोज देना होता है
ज़हर वर्षों तक
एक निश्चित अनुपात में
एक निश्चित लय से
बढ़ाते हुए मात्रा और सांद्रता
साधना की तरह कुछ कुछ
साथ ही साथ तैयार करना होता है
सौंदर्य, कला और आचार-व्यवहार को भी
विषकन्याएँ
कोई रातों-रात तो नहीं बनतीं।
सत्य ये भी है किंतु
कि वापस जाने के सारे मार्ग
बंद होते जाते हैं इस यात्रा में
और क्या मूल्य अर्जित कर पातीं हैं
वे जीवन में
अंततः रह जातीं हैं बन के कठपुतली
किसी की महत्वाकांक्षा की
काठ की हाँड़ी की तरह
जीवन में बस एक बार
इस्तेमाल होने के लिये।
विषकन्याएँ
फिर उम्र भर इस अभिशाप को सहती हैं
उस समाज की तरह
जो अपनी घृणा को हथियार बना कर
किसी सभ्यता को खत्म करने की
किसी वर्ग की महत्वाकांक्षा का
औजार बने
जिसे तैयार किया गया हो किसी विषकन्या की तरह
जहर भरे विचारों और भावनाओं के द्वारा
एक युग तक धीरे-धीरे
और अंततः ख़ुद अकेला रह जाए
अपने सारे पछतावे और प्रायश्चित के साथ।
१ जुलाई २०२२ |