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यात्राओं के दंश |
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खाली जेबें, भरी दुकानें
लगते सब बाज़ार पराये
गुमसुम-से सोचें---
'दुनिया के इस मेले में
हम क्यों आए'
यहाँ हाथ से हाथ अजनबी
इस मेले की बात निराली
मौत बहुत सस्ते में मिलती
जीवन महँगा, शर्तें काली
घुट-घुट कर चुप रह आँसू पी
होंठों पर
हैं फूल खिलाए
भीड़ों में भी घोर अकेली
यात्राओं के दंश भयंकर
रिश्तों-भरी हवेली, लेकिन
धीर बँधाए कब कोई स्वर
फूलों की घाटी के सपने
काँटों से
हम गये सताए
अपनी तो सब की सब राहें
बीहड़ में जाकर खो जातीं
दोपहरी में मृग-तृष्णाएँ
मरुथल-बीच रहें भटकातीं
सोचें-- अनहोनी हो जाए
सिर पर
कोई बदली छाए- गिरिजा कुलश्रेष्ठ |
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इस माह
गीतों में-
अंजुमन मे-
छंदमुक्त में-
दिशांतर में-
क्षणिकाओं में-
पुनर्पाठ में-
विगत माह
गीतों में-
अंजुमन मे-
छंदमुक्त में-
दिशांतर में-
दोहों में-
पुनर्पाठ में-
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