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सर्द
सुबह में |
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सूरज की
मनमानी टोंकें
ऊँचे स्वर से हम
सर्द सुबह में भले धूप की
ख़ातिर तरसे हम
दुनिया की आँखों में अपना
यही गुनाह रहा
दो और दो को हर हालत में
हमने चार कहा
पाँच नहीं कह सके
तनी भौंहों के डर से हम
पीछे खड़े प्रलोभन
आगे अपना खड़ा ज़मीर
लोग बाँधने चले
हवा के पाँवों में जंज़ीर
समझौता कुछ कर न सके
अपने शायर से हम
दुश्मन हो कर नहीं
प्रचारित करते खुद को मित्र
ओढ़ दोगलेपन की चादर
रखते नहीं चरित्र
जैसे बाहर से दिखते
वैसे भीतर से हम
- वीरेन्द्र कुअँर
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इस माह
ऋतु विशेषांक - सर्द सुबह में
गीतों में-
दोहों
में-
दिशांतर
में-
नयी
कविता
में-
गौरव
ग्राम में-
अंजुमन
में-
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