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सर्दियों की रात में

सर्द सुबह

रात उनके साथ सोने के लिए राज़ी न थी।
कागजों और पन्नियों की आग भी काफी न थी।

बस वही फुटपाथ जीने और मरने के लिए,
एक अंगुल भी ज़मीं अब शहर में खाली न थी।

सोचता हूँ मर गए जो सर्दियों की रात में,
मौत उनकी ज़िन्दगी के बोझ से भारी न थी।

मयकशी थी शोरगुल था और थी हिंसा वहाँ
पर किसी के भी जहन में गाँधीवादी न थी

बेच दी है मालियों ने खुशबुएँ बाजार में
बाग में कोई कली खिलती हुई ताजी न थी।

- जयप्रकाश मिश्र
१ दिसंबर २०१९

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