अंजुमनउपहारकाव्य संगमगीतगौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहे पुराने अंक संकलनअभिव्यक्ति कुण्डलियाहाइकुहास्य व्यंग्यक्षणिकाएँदिशांतर

बरफ पड़ी है

सर्द सुबह

बरफ पड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
सजे सजाए बंगले होंगे
सौ दो सौ चाहे दो एक हज़ार
बस मुठ्ठी भर लोगों द्वारा यह नगण्य श्रंगार
देवदारूमय सहस बाहु चिर तरुण हिमाचल
कर सकता है क्यों कर अंगीकार

चहल पहल का नाम नहीं है
बरफ बरफ है काम नहीं है
दप दप उजली सांप सरीखी
सरल और बंकिम भंगी में -
चली गयीं हैं दूर दूर तक
नीचे ऊपर बहुत दूर तक
सूनी सूनी सड़कें

मैं जिसमें ठहरा हूँ
वह भी छोटा-सा बंगला है -
पिछवाड़े का कमरा
जिसमें एक मात्र जंगला है

सुबह सुबह ही
मैने इसको खोल लिया है
देख रहा हूँ बरफ पड़ रही कैसे
बरस रहे हैं आसमान से धुनी रूई के फाहे
या कि विमानों में भर भर कर
यक्ष और किन्नर बरसाते
कास कुसुम अविराम

ढके जा रहे
देवदार की हरियाली को अरे दूधिया झाग
ठिठुर रहीं उँगलियाँ
मुझे तो याद आ रही आग

गरम गरम ऊनी लिबास से लैस
देव देवियाँ देख रही होंगी अवश्य हिमपात
शीशामढ़ी खिड़कियों के नज़दीक बैठकर
सिमटे सिकुड़े नौकर चाकर चाय बनाते होंगे

ठंड कड़ी है
सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है
बरफ पड़ी है

- नागार्जुन
१ दिसंबर २०१९

इस रचना पर अपने विचार लिखें    दूसरों के विचार पढ़ें 

अंजुमनउपहारकाव्य चर्चाकाव्य संगमकिशोर कोनागौरव ग्राम गौरवग्रंथदोहेरचनाएँ भेजें
नई हवा पाठकनामा पुराने अंक संकलन हाइकु हास्य व्यंग्य क्षणिकाएँ दिशांतर समस्यापूर्ति

© सर्वाधिकार सुरक्षित
अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

hit counter