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आजकल |
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हवा में फिर से घुटन है आजकल
रोज सीने में जलन है आजकल
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घुल रही नफरत नदी के नीर में
नफरतों का आचमन है आजकल
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कौन-सी अब छत भरोसे मन्द है
फर्श भी नंगे बदन है आजकल
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गले मिलते वक्त खंजर हाथ में
हो रहा ऐसे मिलन है आजकल
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फूल चुप खामोश बुलबुल क्या करें
लहू में डूबा चमन है आजकल
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गोलियाँ छपने लगी अखबार में
वक्त कितना बदचलन है आजकल
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जा नहीं सकते कहीं बचकर कदम
बाट से लिपटा कफन है आजकल
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--रामेश्वर दयाल कांबोज हिमांशु |
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