लेखनी ने आज
फिर है मौन तोड़ा
फिर कहीं संवेदना घायल हुई है!
फिर कहीं निस्पंद चूल्हा
हो गया है
तवे की गर्माहटें सब
खो गई हैं
आँसुओं का आचमन कर
सिसकियाँ कुछ डेगची पर टिक
सदा को सो गई हैं
आस की लंबी उमर
घिर व्यूह में
फिर विवशता का
क्षत-हताहत पल हुई है!
उम्र इस दहलीज पर आ फिर
बिकी है
फिर कहीं सिंदूर का अभिनय
हुआ है
मर गई मैना
बिंधी पाँखें लिए फिर
बच गया बस साँस को ढोता सुआ है
फिर कमंडल में समंदर है
कहीं पर
और वर्षा फिर
अनिश्चित कल हुई है!
फिर कहीं अखबार है कुछ
ढूँढ़ लाया
फिर बहस में आ गई
कुछ सनसनी है
एक गूँगी आह तकती शून्य
में फिर
फिर बचावों में
कई चादर तनी हैं
फिर झुकी है
पीठ शब्दों को कहीं पर फिर
मरालों की सभा काकल हुई है!
-
देवेन्द्र आर्य |