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24. 8. 2007  

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भावना चौधरी की कलाकृति

सोचते ही सोचते

यह सोचते ही सोचते सब उम्र पूरी हो गई।
इंसान की मुस्कान क्यों आधी-अधूरी हो गई।।

देखिए हर भाल पर
चिंता की रेखा खिंच रहीं।
नफ़रत के उपवन सिंच रहे और नागफनियाँ खिल रहीं।।
इंसान से इंसान की अब क्यों है दूरी हो गई।
यह सोचते ही सोचते. . .

कुछ त्रस्त हैं कुछ भ्रष्ट हैं
कुछ भ्रष्टता की ओर हैं।
हो रहीं ग़मगीन संध्याएँ सिसकती भोर हैं।।
वह सुहागिन माँग क्यों कर बिन सिंदूरी हो गई।।
यह सोचते ही सोचते. . .

इंसान पशुता पर उतारू
हो रहा नैतिक पतन।
यह देख कर माँ भारती के हो रहे गीले नयन।।
प्रेम की क्यों भावना भी विष धतूरी हो गई।।
यह सोचते ही सोचते. . .

-संतोष कुमार सिंह

 

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गीतों में-
संतोष कुमार सिंह

अंजुमन में-
देवी नांगरानी

कविताओं में
बिंदु भट्ट

नई हवा में-
आशीष कुमार अग्रवाल, शार्दूला और
अजय यादव

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(15 अगस्त 2007 के अंक में)

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मेरा भारत

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन¸ कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
-|- सहयोग : दीपिका जोशी