अजय यादव
साहित्य से लगाव
बचपन से ही रहा। पिता जी को हिन्दी काव्य में गहरी रुचि थी। अकसर
उनसे कविताएँ सुनते-सुनते कब खुद भी साहित्य-प्रेमी बन गये, पता
ही नहीं चला।
घर में महाभारत,
गीता आदि कुछ धार्मिक किताबें थीं, उनसे स्वाध्याय की जो शुरूआत
हुई, वह वक़्त गुजरने के साथ-साथ शौक से ज़रूरत बनती गयी। परन्तु
अब तक पढ़ने का ये शौक सिर्फ पढ़ने तक ही सीमित रहा था, कभी
स्वयं कुछ लिखने का प्रयास नहीं किये।
कुछ समय पूर्व
अंतरजाल के संपर्क में आए तो पढ़ने-लिखने के इस सिलसिले को एक नई दिशा
मिली।
ई मेल
ajayyadavace@gmail.com
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एक ग़ज़ल और एक गीत ग़ज़ल
ज़िंदगी में जिस भी दम, चाहा मिले फज़ा नई
फिर कारवाँ का पता न था, थी सामने खला नई
चाहा था तोड़ दूँ सभी, काँटे मैं सच की राह के
बस इतने ही कसूर पर, मुझे दी गई सज़ा नई
मैं चाहता था मौत से, छीन लाऊँ हयात को
अभी सोच भी सका न था, थी सामने कज़ा नई
इंसानियत की लाश जो, सरे-राह देखी पड़ी हुई
तड़प के दिल ये कह उठा, मालिक मेरे जज़ा नई
ये 'अजय' निजामे-ख़त्म है, बदल दें इस निजाम को
इस वास्ते मेरे खुदा, तेरी चाहिए रज़ा नई।
गीत
अंबर के अंतस की पीड़ा,
श्याम-वर्ण बादल बन छायी
झर-झर झरते अश्रु गगन के, जग समझा वर्षा ऋतु आई
मेघाच्छादित गहन रात में, बैठा थामे कलम हाथ में
सोच रहा था लिख डालूँ सब, जो गुजरा अंबर के साथ में
आँसू छलक पड़े आँखों से, सहसा याद तुम्हारी आई
उस दिन जब देखा था तुमको, हाथ लिये पूजा की थाली
सादा कपड़े, सुंदर चेहरा, दीप जलाती आँखें काली
तुमने जल ढाला तुलसी पर, मेरे मन मूरत वह भाई
चंद मुलाक़ातों में हमने, इक दूजे को दिल दे डाला
मेरा हर इक सपना तुमने, अपनी आँखों में रख पाला
मेरे हर दुख में तुम रोयीं, अपनी हर तकलीफ छिपाई
किन्तु काश ऐसा हो जाता, सपने सभी सत्य हो पाते
कितना सुंदर होता जीवन, तुम यदि जीवन में आ जाते
बिछड़े हमको अरसा बीता, सपनों से न गयी परछाईं
24 अगस्त 2007
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