भय का लभेरा
कसे हर मस्तिष्क को
भय का लभेरा है
जो सुनाई दे रहा, वह
स्वर न मेरा है!
हिचकिचाहट से भरी
झरती उदासी है
कंठ में फँस गई
कड़वाहट धुँए की है
एक बटुरी धूप
खाँची भर अंधेरा है!
पर-कटे वनपाखियों की
फड़फड़ाहट-सा
क्षीण बेवा नाजनीं की
मुस्कुराहट-सा
भार के सिर पर चढ़ा
बेसुध उबेरा है!
ठूँठ हर अहसास की
लग रही शाखें हैं
या रतौंधी से
हुई कमज़ोर आँखें हैं
एक घर में
साँप-नेउर का बसेरा है!
४ जनवरी २०१० |