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अनुभूति में डॉ. सुधा ओम ढींगरा की रचनाएँ-

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चाँदनी से नहाने लगी
प्रकृति से सीख
पूर्णता
बेबसी
मोम की गुड़िया

छंदमुक्त में-
कभी कभी
तुम्हें क्या याद आया
तेरा मेरा साथ
बदलाव
भ्रम
यह वादा करो

 

 

  पूर्णता

चाँदनी धरती पर
छठा बिखेरने जब
उतरने लगी...
चाँद ने उदास हो पूछा--
मेरे अधूरेपन में तुम
समाई रहती हो,
पूर्ण होते ही
छोड़ जाती हो।

पूर्णिमा की रात
कहर ढाती है मुझ पर,
लोग पूजा-अर्चना कर
स्वीकारते हैं मेरा पूरापन
तब तुम,
मेरे पहलू में नहीं होती
धरती को अपनी छवि से
सराबोर करने चली जाती हो।

प्रिय,
अधूरे को ही तो
पूरा किया जाता है
पूर्णता तो स्वयं
स्थान रहित होती है...
पृथ्वी पर मैं
टूटे दिल,
विरह के मारे प्रेमी,
व्यथित हृदयों,
कल्पनायों में
विचरने वालों के
अधूरे सपने ही तो
पूरे करने जाती हूँ।

पर अब तो,
मानव ही बदल गया
न छत्त है, न आँगन
बड़ी-बड़ी अट्टालिकायें
न जा सकूँ, न फैल सकूँ
फिर निराश आशिक भी कहाँ...
इधर दिल टूटा,
नई जगह है जुड़ जाता,
आहें भरने,
मुझ से ठंडक पाने का समय कहाँ...
कल्पनाओं में मुझे बुनने वाले
अब कवि भी कहाँ...
बुद्धि कौशल में उलझे उनके
हृदयों में अब मेरा स्थान कहाँ...

प्रिय,
धरती वासी
तुम पर बसना चाहते हैं,
जिस दिन तुम्हें कष्ट में पाऊँगी,
रक्षा कवच बन जाऊँगी,
साथ निभाने आऊँगी,
पूर्णता पा जाऊँगी,
अभी मुझे धर्म निभाने दो,
कुछ बेचैन रूहों,
अतृप्त आत्मायों को सुख देने दो...

३० नवंबर २००९

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