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अनुभूति में शकुंतला बहादुर की रचनाएँ-

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छंदमुक्त में-
उधेड़बुन
कैलीफोर्निया में हिमपात
दूरियाँ
समय


 

 

उधेड़-बुन

सलाइयों पर कुछ फंदे डाल
मैं बुनती रही, बुनती ही रही।
कभी कुछ गिराती, कभी कुछ उठाती
कभी कुछ घटाती, कभी कुछ बढ़ाती
कभी उधेड़ देती और फिर ले बुन लेती
बुनाई को आकार देने के प्रयास में -
बार बार भूलें सुधारती रही
निरन्तर यत्न से जुटी रही
बुनती रही, बुनती ही रही।

तभी मन में बिजली सी कौंध गई
और... पल भर को मैं विचारों में खो गई।

समय की सलाइयों पर
पलों के फंदों को हम
निरन्तर बुनते ही तो रहते हैं
कभी कुछ घटाते और
कभी कुछ बढ़ाते हैं
अतीत को उधेड़ते और
भविष्य को बुनते हैं।
कुछ याद करते और
कुछ बिसराते हैं।
कभी कोई पूरा जीवन बुन जाता है
तो किसी का अधूरा छूट जाता है।
इसी उधेड़-बुन में
सारा जीवन बीत जाता है।

१५ दिसंबर २०१६

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