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बर्फ के दायरे

कुछ बिगड़ते रहे, कुछ बिखरते रहे,
ख़्वाब पलकों से मेरी फिसलते रहे

वक्त को थामना मैंने चाहा बहुत,
दायरे बर्फ बन-बन के जमते रहे

तुम रुके भी नहीं, तुम झुके भी नहीं,
दोनों बस अपने रास्तों पे चलते रहे

पीने वालों ने फिर मन को बहला लिया,
खुद ही गिरते रहे, खुद संभलते रहे

जब चली हीर डोली पे चढ़ के कोई
कितने रांझों के अरमाँ मचलते रहे

एक दीवाना गलियों में गाता रहा,
याद के कुछ जनाज़े निकलते रहे

अक्स बिगड़ा हुआ फिर संवर न सका,
लोग आईने अपने बदलते रहे

आई दीवाली जलके बुझे सब दिए
रात भर तन्हा कंदील जलते रहे

१४ जनवरी २०१३
 

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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