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ज़िंदगी छलने लगी

शाम जब ढलने लगी कंगारूओं के देश में
पीर सी पलने लगी कंगारूओं के देश में

याद फिर आने लगे कुछ दोस्त अपने वतन के
आग सी जलने लगी कंगारूओं के देश में

फिर लगा मन सोचने कि क्या मिला क्या न मिला
कुछ कमी खलने लगी कंगारूओं के देश में

दूर तक पसरी हुई थीं अपनी जो परछाइयाँ
हाथ फिर मलने लगीं कंगारूओं के देश में

वक्त पंछी सा न जाने कब, कहाँ उड़ता गया
ज़िंदगी छलने लगी कंगारूओं के देश में

३१ जनवरी २०११

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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