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  पतझड़ी शाम

किसी पतझड़ी शाम को
गोधूलि वेला में
हवा की महक पहचानी-सी लगे
जैसे अहले-सुबह टहनी से-
सप्तरंगी फूलों की वर्षा कर रहा हो आसमां।

नभ झुक आए धरती से मिलन को-
मद्धम-मद्धम चाँद समुद्र्र में समाने लगे
चांदनी में संपूर्ण धरा नहाने लगे
तब
तुम न चाहो फिर भी याद आऊँ सदा।

आसमां की बदली जब कभी
बेचैन होकर बरसे
मन तुम्हारा भी
भीगने को तरसे।
दग्ध मरुथल सुजल हो जाएँ
रिमझिम बरसात में।

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