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सृष्टि की धुरी तू है माँ
सबकी पालनहारी, आदिशक्ति
प्यार का सुधारस सरसाने वाली तू माँ

अपने बच्चों के लिये करती
सब दुःखों का गरलपान
मुक्त होकर कहती
खिलने दो बाग़ की कलियों को।

संसार के भावी निर्माता को बाँधती
उत्कृष्ट सभ्यता के बंधन में
खिलाती जीवनदायिनी नदी-रस के
पालने में घाटियों की बहार सा।

अग्निशिखा के बीच निर्भय होकर
तू चलना सिखलाती
महान पूर्वजों की राह दिखलाती
ओ मां, प्यारी मां तेरी ममता
है अमूल्य।

गाँव की टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर
खड़ी हो निर्द्वंद्व
बच्चों के बदलते चेहरे को देखकर
महसूसती लिपिहीन भाषा
मौन हो जाती कई बार दीर्घ व्याख्या के लिए
फिर भी, त्याग की मूर्ति बन
कभी धरती के रूप में हमें
अपने हरीतिमा भरे आँचल में
जीवन रस का अमृत पान कराती।

कभी अपना नया रूप धरकर
अपनी गोद में ले दुलरा जाती
अपने अंकुर को रंग, रस-गंध से भरकर
कहती यह उत्सुक है
इन्हें खिलने दो अनंत विस्तार में . . .

२४ सितंबर २००६

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