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  मुट्ठी भर -

मुट्ठी भर वक़्त
कुछ पंख यादों के
बटोर कर बाँध लिए थे
रात की चादर में मैंने।
पोटली बनाकर रख दी थी
घर के किसी कोने में बहुत पहले।
आज जब भूल से तुम
ख़्वाब में आए
तो याद आ गई!
बैठी हूँ खोजने तो
कुछ मिलता ही नहीं!
टटोलती हूँ, ढूँढ़ती हूँ,
नज़रें पसार कर
पोटली तो क्या
घर के कोने भी
गुम हो चुके हैं सारे!
इंतज़ार है तो बस एक ही
कि वह रात एक बार फिर लौटे
बूँद-बूँद चेहरे से तेरे गुज़रे,
भर के हाथों में उसे सहलाऊँ मैं
होठों से चूमूँ
पोटली में रख दूँ फिर से-
इस बार सम्हाल कर
अपनी पलकों के तले।

२५ जनवरी २०१०

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अनुभूति व्यक्तिगत अभिरुचि की अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिका है। इसमें प्रकाशित सभी रचनाओं के सर्वाधिकार संबंधित लेखकों अथवा प्रकाशकों के पास सुरक्षित हैं। लेखक अथवा प्रकाशक की लिखित स्वीकृति के बिना इनके किसी भी अंश के पुनर्प्रकाशन की अनुमति नहीं है। यह पत्रिका प्रत्येक सोमवार को परिवर्धित होती है

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