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  प्रमाणिकता

पुरखों से ढोता
इंसानी भेष
अपने अनुसार
बदलने में
माहिर है आदमी
तभी
आधुनिक परिवेश में
ढ़ोंगी के वेश में
फल-फूलता है आदमी

ख़ुदग़र्ज़ी का मामला हो
या ख़ुद दिलजला हो
अपने लिये सोचता है
ख़ुद को बेहतर बोलता है
और विडम्बना देखो-
जो ख़ुद आदमी नहीं है
वो दूसरों से
आदमी होने की
प्रमाणिकता माँगता है

१६ जुलाई २०१२

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