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अमृत-बीज
कसम खा ली है, अमृत बीज बोने की
जीवन के पतझड़ में बसन्त के एहसास की
चल पड़ा लेकर खुली आँखों के सपने।
दर्द बहुत है यारों राह में,
हरदम आघात का डर बना रहता है
पुराने घाव मे नया दर्द उभरता है
मुश्किलों के दौर में भी जीवित रहते है सपने।
अँगुलिया उठती है विफलता पर,
रास्ता छोड देने का मशविरा मिलता है
मानता नही जिद पर चलता रहता हूँ
विफलता के आगे सफलता देखता हूँ
कहने वाले तो यहाँ तक कह जाते है
मर जायेगे सपने,
मेरी जिद को उर्जा मिल जाती है
ललकारता अमृत बीज से बोये,
नही मर सकते सपने।
कहने वाले नही मानते कहते,
मिट जायेगी हस्ती इस राह में
मैं कहता खा ली है कसम बोने के इरादे अपने
हस्ती भले ना पाये निखार, न मिटेगे सपने।
सपनों को पसीना पिलाकर
आँसुओं की महावर से सजाकर
उजड़े नसीब से उपजे चाँद सितारों को मान देकर
चन्द अपनों की षुभकामनाओं की छाँव में,
कलम थाम, विरासत का आचमन कर,
थाती भी तो यही है कलमकार की अपनी।
कैसे नही उगेंगे अमृत बीज
राष्ट्र हित-मानवहित मे देखे गये
खुली आँखों के सपने।

१४ जून २०१०

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