| खुले ही रहते थे 
                  खुले ही रहते थे जब दिल के द्वार 
                  आँगन मेंतो ख़ुशियाँ आती थीं बाँधे कतार आँगन में।
 मकान ख़ाली है कोई यहाँ नहीं 
                  रहताबता रहे हैं मुझे बिखरे खार आँगन में।
 हैं भाई-भाई भी दुश्मन ज़मीनों 
                  ज़र के लिएन प्यार मिलता है ना एतबार आँगन में।
 लगा यों बाप को दिल उसका 
                  टुकड़े-टुकड़े हुआजब उसके बेटों ने खींची दिवार आँगन में।
 नगर जो फैले तो आँगन सिकुड़ गए 
                  ऐसेकि छज्जे होने लगे हैं शुमार आँगन में।
 चुगेंगीं आके इन्हें अम्नो चैन 
                  की चिड़ियाँबिखेर प्यार के दाने तू यार आँगन में।
 'ऋषी' मकानों में आँगन ही अब 
                  नहीं मिलतेबिखेरूँ कैसे भला अब मैं प्यार आँगन में।
 ९ जुलाई २००६ 
                 |