| मुझको किनारा मिल गया उसने जो चाहा था मुझे इस ख़ामुशी के बीचमुझको किनारा मिल गया उस बेखुदी के बीच
 घर में लगी जो आग तो लपटों के दरमियां मुझको उजाला मिल गया उस तीरगी के बीच
 उसकी निगाहेनाज़ को समझा तो यों लगाकलियाँ हज़ार खिल गईं उस बेबसी के बीच
 मेरे हजा़र ग़म जो थे उसके भी इसलिएउसने हँसाकर हँस दिया उस नाखुशी के बीच
 मेरी वफ़ा की राह में उँगली जो उठ गईदूरी दीवार बन गई इस ज़िंदगी के बीच
 दुनिया खफ़ा है आज भी 'घायल' तो क्या हुआउसका ही रंगो नूर है इस शायरी के बीच
 1 जून 2007 |