अनुभूति में
सुवर्णा दीक्षित की
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कुछ लम्हों पहले
बस अबसे कुछ लम्हों पहले
इक आस का आलम था दिल पर
साँसों में महक थी फागुन की,
आँखों में शिकायत होती थी
मस्ती मे महकते आँचल को
ज़ुल्फ़ों से शिकायत होती थी
यादों की गली में साँझ ढ़ले
आता था कोई मेरे दर पर
बस अबसे कुछ लम्हों पहले . . .
अब कुछ भी नहीं है पास मगर,
इक धुंध का आलम छाया है
आवारा समय का चोर मुझे
मुझसे ही चुरा ले आया है
टूटा है घरौंदा सपनो का
तिनके बिखरे मेरे दर पर
बस अबसे कुछ लम्हों पहले...
रस्मों को निभाने की खातिर
मैं भी साँसें ले लेती हूँ
पूछा जो किसी ने "कैसी हो?"
'अच्छी हूँ', यह कह देती हूँ
मेहमान कोई भी खुशियों का
आता ही नही मेरे दर पर
बस अबसे कुछ लम्हों पहले...
खुद से मिलकर यूं लगता है
कब्रें भी साँसें लेती हैं
विष पीकर भी जो बुझ न सकें
कुछ ऐसी प्यासें होती हैं
मै भी तो प्यासे होंठ लिये
बैठी हूँ कबसे पनघट पर
बस अबसे कुछ लम्हों पहले...
शायद कोई मेरे ग़म को
सपनो के ताजमहल दे दे
बस इसी प्रतीक्षा मे अब तक
दुनिया भर के दुख हैं झेले
बोलो मैं कब तक और जिऊँ
यूँ हर पल हर क्षण डर–डर कर
बस अबसे कुछ लम्हों पहले...
२४ मार्च
२००४ |