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अनुभूति में विशाल मेहरा की रचनाएँ

छंदमुक्त में-
उज्र के रोगी से
ऐसा करार पहले न था
बहारों को सही से देखना

 

ऐसा करार पहले न था

ऐसा करार पहले न था सबको मुझको
जिंदगी यूँ ही चले तो क्यों अखरे मुझको
तन्हाई से तौबा को जी चाहता है
अलबत्ता सोहबत कुछ फबती नहीं मुझको
फिर से मोहलत के फ़िजा पे निसारें
कैसे ये नसीब होते रहे मुझको
जिन दिनों उनपे जब लबलबा आया
वो कैंफ़ रहा जो ना भूलता मुझको
रश्क के तूफाँ आखिर सिमटने लगे
क्या ऐन रोज दहशत न हुई मुझको?
खलवत की भी लतें हो जाया करती हैं
किसी ने क्यों न बताया मुझको?
तमाम उम्र काम कर छोड़ा तो यूँ तरावट हुई
जान पड़ता है के नौकरी के घंटे लगते नहीं थे मुझको
लो चलते चलते एक शेर और बन गया
ऐसा तो नहीं के फुरसत कुछ ज्यादा है मुझको
उनसे कहिये के बहुत हुआ 'बेदर्ज' रखे
चन्द ही रोज रंज ने सुलाया था मुझको


१ सितंबर २००१

 

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