अनुभूति में
विशाल मेहरा की रचनाएँ
छंदमुक्त में-
उज्र के रोगी से
ऐसा करार पहले न था
बहारों को सही से देखना
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बहारों को सही
से देखना
बहारों को सही से देखना
हमसे न हुआ
कहते हैं हुस्न को सो निहारिये जैसे कुछ न हुआ।
सहज हैं मूँदे नयन जग विचारना
क्या चाँदनी देखने छत पे जाना न हुआ?
लज़्ज़त में विराग का पुट हमपे लगता है
सोतों को देखते थे, पैर डालना न हुआ।
घरों में खिडकी उस पे जाली तिस पे परदा
बहारें जाती रहीं ऐसी के पता न हुआ।
कितना मधुर वो चाँद भोर तक जिसकी बाट हो
धनकने में जो हड़बड़ करे तो ज़रा शेर न हुआॐ
सहसा चहचहाते पंछी आते हैं
जिनके बिना तो आपका लिखना ना हुआ।
अब तो अरसे होते हैं वो सब देखे
नज़रबंद आप किताबों से हुए उनसे ये न हुआ।
बुलंद तैरती चीलों ने तो जहाँ 'बेदर्ज' किया
उनका कब तक सोचिये जो आपका न हुआ।
१ सितंबर २००१
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