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साथी रेगिस्तान का
जीवन से मत हार मुसाफिर
जीवन खेल अनोखा है
जीवन जितना सच्चा है
जीना उतना धोखा है
दूर सुलगती रेत की राहें
जिन्दगी लेती दर्द की कराहें
उस पार जिजीविशा खोले है बाहें
इस पार हृदय में ठंडी आहें
कैसे समय यहाँ पर काटें
अपना गम हम किससे बाँटें
हर तरफ बस रेत के टीले
सारे दिल गमों से गीले
हर हृदय में खाली स्थान
बसता जहाँ इक रेगिस्तान
वहीं कहीं है उड़ती रेत
मुठ्ठी से खिसकती रेत
रेत ही रेत के सफर में
पथिक को कितनी प्यास है
मरीचिका भरे रेगिस्तान में
जिसे पानी की तलाश है
ह्दय में सपनों का महल बनाया
उस पर आँधियों ने कहर ये ढाया
रेत के नीचे उसे दबाया
आज मुसाफिर वहीं खड़ा है
जिसके नीचे महल पड़ा है
अरे मुसाफिर कितने अन्जान
अपने मन के महल को पहचान
यहीं गलत हैं हम पथिक सारे
चलते नही जो मन के द्वारे
अपने को पहचान न पाते
मन के भीतर झाँक न पाते
पहले मन के रेगिस्तान में
फूल कोई एक खिलाना होगा
एक अजनबी को इस रेगिस्तान में
साथी बनाना होगा
जो लेकर प्रेम का अथाह सागर
इस ह्दय को डुबा देगा
अपनत्व और प्रेम की हरियाली से
इस रेगिस्तान को मिटा देगा
१६ जनवरी २००३
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