जागृति
विषाक्त आज तरु की मंद वायु,
अलि ढूँढ रहा पुष्प में पराग।
प्रदूषित हो रहा सकल पर्यावरण,
रे भारतीय अब जाग-जाग।।
सुख समृद्धि का लालायित क्यों तू,
हश्र इसका है गर्हित अति।
कार्य है यह सर्वथा कुत्सित,
स्व-विनाश है तरु ध्वंस प्रति।।
वातायनों व झरोखों की समीर,
वह गीत-गुंजन उल्लास कहाँ?
चहुँ ओर अट्टालिकाएँ, वाहन
विटपों का भावात्मक प्रकाश कहाँ?
कलिका का वह मंजु कंपन,
पत्रों की मर्मर ध्वनि;
वायु का मदमस्त होना,
तितलियाँ मधु से सनी?
स्वार्थ पत्र विटप को निगल रहा,
ध्वंसरत है यह भीषण आग।
वनस्पति क्षय की प्रलय है समक्ष
रे भारतीय अब जाग जाग।।
द्रष्टव्य नहीं अक्षिप्रिय विस्फुरण,
तरुओं की कर्णप्रिय झंकार।
ऊर्जस्वित हो तरु खिलखिलाते,
उठा हरीतिमा का प्रसार-भार।।
समीकरण भिन्न है आज,
मानव ग्रस रहा पर्यावरण।
वृक्षारोपण का भाव त्यागकर,
आमंत्रित कर रहा सृष्टि-मरण।।
बीज स्वसंतति के विनाश के,
रोप रहा मानव समाज।
गौरवान्वित है देख वह,
वनस्पति-क्षय का दृश्य आज।।
धन-ऐश्वर्य प्राप्ति से प्रसन्न हो,
वृक्षारोपण से विमुख हो भाग
क्यों कर रहा पतन भारत का,
रे भारतीय अब जाग जाग।।
२१ अप्रैल २००८