बिखरे
हिमखंड तितर-बितर
कर दिए गए हो
सोचो फिर जुड़ाव की।
दल-संस्कृति से मिला
तुम्हें क्या
कबीलियाई खून-खराबा
टूटा ध्वज, तिलक, टोपियों के-
बल पर कुछ बनने का दवा
खाली सिर हो गए बोझ से
सोचो फिर भराव की।
जाति आदमी, धर्म आदमी
क्या ये दर्शन नाकाफी है
क्या नहीं दूसरी आज़ादी-
के लिए बात बुनियादी है
बिखर गए हिमखंडों! सोचो
मिलकर फिर बहाव की।
१५ मार्च २०१० |