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झील रात की
साँझ–सुबह के मध्य अवस्थित
झील रात की,
भरी हुई है अँधियारे से।
नीली–नीली लहर नींद की उठती–गिरतीं,
अवचेतन मन की कितनी ही नावें तिरतीं,
कुंठाओं के कमल खिले हैं
सपनों–जैसे।
इसी झील के तट पर पेड़ गगन है वट का,
काला बादल चमगादड़–सा उल्टा लटका,
शंख–सीप–नक्षत्र रेत में
हैं पारे–से।
नंगी नहा रहीं प्रकाश की लाख बेटियाँ,
तट पर बैठीं बाथरूम–गायिका झिल्लियाँ,
खग चीखे –
वह डूब रहा है चाँद, बचा लो,
गहरे में से।
साँझ–सुबह के मध्य अवस्थित झील रात की,
भरी हुई है अंधियारे से
१ सितंबर २००६
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