|
अपनी तपनी
अपनी–तपनी ही अच्छी है,
बोलो, किसकी बात करें।
बाहर और कहाँ है धरती,
जिस पर जाकर पाँव धरें।।
भली लगे तो बात न कोई,
बुरी लगे तो सब झगरें।।
मुँहदेखी कहते तो गादी,
काहे रहते परे घरें।।
कह–सुन अपने दुख–सुख बाँटें,
राग–द्वेष माँ क्यों पजरें।।
पहरे खड़े खबीस–सिरकटे,
खून पियें औ' माँस चरें।
हर पल यों मरने से बेहतर,
इन्हें मार दें, भले मरें।।
१ सितंबर २००६
|