लोग
बस्ती के
रीढ़ को बोझे झुकाएँ
घर-गृहस्थी के
और ले आये बखेड़े
लोग बस्ती के
रेत के सूखे कणों में
स्रोत जल ढूँढे़
तोड़ते तटबंध चढ़कर
धूप के बूढे
भूल बैठी नाव फिर से
घाट-गश्ती के
फड़फड़ाती पंख चिड़िया
गिन रही तिनके
घोंसलों के पास बिखरे
खण्डहर जिनके
याद आते आज वे दिन
मौज-मस्ती के
खेत पर सरसों खड़ी
सब अटकलें सुनती
धार पैनी फाँसने को
पल नये बुनती
तेल की परछाइयों में
बोल हस्ती के
१ फरवरी २०२३
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