स्वर्णपंखी साँझ
शाम सिंदूरी
गगन लोहित हुआ!
कुहनियों के
बल, हथेली पर टिकाकर
गाल, लेटी धूप
मुग्ध मन से
है निरखती स्वर्णपंखी
साँझ का यह रूप
द्वीप मरकत
भाल पर शोभित हुआ!
झिलमिलाते
चाँद-तारे
नदी-जल में तैरते-से दीप
देखते हैं
दृश्य अपलक
तल-अतल में मीन-घोंघे-सीप
भूल सब कुछ
चर-अचर मोहित हुआ!
२४ अगस्त २००९