आए हम शहर
आए हम शहर
गाँव नेहों का भूल गए!
चेहरों पर एक नहीं
अनगिन हैं पर्तें
कितनी जो जीने की
ऐसी हैं शर्तें
जामनु की छाँव
नीम-बरगद को भूल गए!
कैसे तो दाँव यहाँ
रोज़ लोग चलते
औरों की कौन कहे
अपनों को छलते
कागा का काँव
.यहाँ आकर हम भूल गए!
कुछ ऐसी भाग-दौड़
भीतर तक टूटे
सपने जो लाए थे
संग-साथ छूटे
आए थे पाने कुछ,
खुद को ही भूल गए!