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अपना हार पिरो
लो
खोलो जी
सुबुक नयन खोलो!
वातायन से किरणें झाँकें
तम-प्रकाश के आखर आँकें
जगा ज्योति की प्यास रातभर
लौएँ राह विदा की ताकें!
फूल करें मनुहार कि पाँखें
ओस-कणों से धोलो!
खोलो जी
तृषित नयन खोलो!
यह उजड़ा-सा नीड़ तुम्हारा
बस, टूटा-सा पेड़ सहारा
सौ तूफानों से लड़कर भी
जो न कभी भीतर से हारा
डालें कहतीं सुधा-पान को
विष से होंठ भिगोलो!
-खोलो जी
गहन नयन खोलो!
किसकी भौहों में थी बाँकी
भावी इन्द्रधनुष की झाँकी?
वह दुख की आँधी में खोयी
तुम अबतक उड़ते एकाकी!
बदलो, पंछी से माली बन
अपना हार पिरोलो!
खोलो जी
विशद नयन खोलो!
१५ फरवरी २०१६
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