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आज संस्कारों का अर्पण लो
गुहा-मनुज मुझ में चुप, प्रस्तर-युग मौन
धातु-छंद से मुखरित, करतल-ध्वनि कौन?
मध्ययुगी रक्त-स्नात, यौवन का दर्पण लो!
आधुनिक मनुज मेरे, नख शिख में लीन
विद्युन्मुर्च्छिता, धरा में यंत्रासीन
‘इहगच्छ, इहतिष्ठ’- अजिर का समर्पण लो!
लो, अब स्वीकारो, यह व्यापक सन्देह
अपने प्रति शंका का, उद्वेलित गेह
विगत के कुशासन पर, आगत का तर्पण लो
आज संस्कारों का अर्पण लो।
१५ फरवरी २०१६ |