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लाख कोशिशें
लाख कोशिशें हमने कर लीं
उतरा नहीं जुआ।
चार कोस, चौरासी चक्कर
सब तो काट चुके
तोला, माशा, रत्ती-रत्ती
सब कुछ बाँट चुके।
हाथ न मुठ्ठी, खुनखुना उठ्ठी।
वाले अब हैं हम
बैर भाव थे जितने मन में
हम तो छाँट चुके।
इतना सब कर डाला हमने
तज दीना आपा
फिर भी बैठा ताक रहा है
बोला नहीं सुआ।
कब सोचा था बेल हमारी
अमर बेल सी है
और बिछावट खाट हमारी
सेई जैसी है।
पग-पग बिखरा जाल गोखुरू
दूभर है चलना।
रात-दिना होती है वैसी
आधा शीशी है।
चलता रहा सदा पगडंडी
सचमुच ही मन से
फिर भी कूल्हे सदा चुभा है
अपना गढ़ा हुआ।
८ जून २०१५
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