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ऊँचे झब्बे
वाली बुलबुल
गुलमोहर तो हरा भरा है
लेकि़न, उस पर लाल सुनहरे
फूल नहीं दिखलाई देते
ऊँचे झब्बे वाली नटखट
बुलबुल के भी स्वर भटके हैं
कल तक नन्हीं बिटिया उससे
छज्जे पर से बतियाती थी
अपने घर का सारा दुखड़ा
जैसे-तैसे गा जाती थी
ऊँचे झब्बे वाली बुलबुल
के अब उलटे पर लटके हैं
गुलमोहर तो हरा भरा है
लेकिन, अब बिटिया, बुलबुल के
पाटल नहीं सुनाई देते
रहा समर्पित दरवाजे के
सारी उमर गुजारी हँसकर
उसकी छाया में रिश्तों की
होती अक्सर कुल पहुनाई
लेकिन, अब उसकी शाखों से
कलह किया करती पुरवाई
ले-देकर कुछ पंछी वे भी
कब तक रहते पंजे कसकर
गुलमोहर तो हरा भरा है
पर अब राहगीर पहले सा
रूककर नहीं दुहाई देते
२३ मई २०११ |