ठंडा पानी
शक्ल वही केवल परिचय
हर रोज बदलता है शोध
शोध संज्ञाएँ रचना तै पंडित दिन का
ठंडी पड़ी अँगीठी कहती खोटा हर सिक्का
रात रात भर छत पर कोई
गिद्ध टहलता है
व्याख्याओं के बर्फ घरों में धूप हुई बदरी
बादल वर्षा और शीत पर कागज की छतरी
रेत महल सा हर आश्वासन
कण कण गलता है कथरी
ओढ़े पड़ी गुमशुदा गलियाँ हैं कब से
घूर रही हैं राजपथों को दो मुट्ठियाँ कसे
कभी कभी ठंडा पत्थर भी
आग उगलता है। १ जुलाई २००६
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