ढूँढ़ रहे इस घर में
कुछ माटी की कोठरियाँ
कुछ छानी छप्पर था
चीज़ें कम थीं पर अंतर से
भरा पुरा घर था
हुक्मशाह पुरिखाँ घर भर की
चिंता ढोते थे
तपन बढ़े तो सबके सिर की
छतरी होते थे
पुरखिन का मन
ज्यों ममता का मानसरोवर था
कठिन परिश्रम था
टीसें थीं नग्न अभावों की
किंतु न टूटी डोर
कभी आंतरिक लगावों की
जलता रहा
निरंतर दीपक ढ़ाई आखर का
लोकरंग से पगे गीत
पर्वों की मस्ती थी
घर क्या था
परजा-परिजन संग पूरी बस्ती थी
अपने से ज़्यादा
पाहुन का होता आदर था
अब ईंटों के पुख्ता घर में हम
एकाकी हैं
भावहीन रिश्तों के बस संबोधन बाकी हैं
१ जुलाई २००६
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