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अनुभूति में मयंक श्रीवास्तव की रचनाएँ-

गीतों में-
आग लगती जा रही है
एक अरसे बाद
नदी
पता नहीं है
मेरे गाँव घिरे ये बादल

 

नदी

आह भरती है नदी
टेर उठती है नदी
और मौसम है कि उसके
दर्द को सुनता नहीं

रेत बालू से अदावत
मान बैठे हैं किनारे
जिंदगी कब तक बिताएँ
शंख -सीपी के सहारे
दर्द को सहती नदी
चीखकर कहती नदी
क्या समुन्दर में नया
तूफान अब उठता नहीं ?

मन मरुस्थल में दफ़न है
देह पर जंगल उगे हैं
तन बदन पर किश्तियों के
खून के धब्बे लगे हैं
आज क्यों चुप है सदी
प्रश्न करती है नदी
क्या नदी का दुःख
सदी की आँख में चुभता नहीं ?

घाट के पत्थर उठाकर
फेंक आयी हैं हवाएँ
गोंद में निर्जीव लेटी
पेड़-पौधों की लताएँ
वक्त से पिटती नदी
प्राण खुद तजती नदी
क्योकि आँचल से समूचा
जिस्म अब ढँकता नहीं ?

७ नवंबर २०११

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